भारत व्रत और त्योहारों का देश कहा जाता है। निश्चित ही कोई कारण रहा होगा। हमारे पूर्वज अध्यात्म के सबसे बड़े वैज्ञानिक थे। बहुत पहले उन्होंने जान लिया कि जिस जीवन में कोई उत्साह नहीं, उल्लास नहीं वह किसी काम का नहीं। इसलिए उन्होंने व्रत-त्योहारों की ऐसी परंपरा डाली जो पूरे पूरे 365 दिन चले।
आज खेत में हल चलाना है तो उसका त्योहार, कल बीज बोने का उत्सव और फिर फसल घर आई तो उसका भी उत्सव। ये व्रत-त्योहार खेती, मौसम, ऋतुओं और मानव शरीर के इनके साथ अनूकूलन के लिए बनाए गए। किसी त्योहार में कोई विशेष व्यंजन बनता है तो किसी त्योहार में कोई अन्य। यह भी अकारण नहीं है। हमारे त्योहारों में आयुर्वेद के अनुसार दिनचर्या व ऋतुचर्या का भी पूरा पालन दिखता है। किसी पूर्णिमा को होली, रक्षाबंधन तो किसी अमावस्या को दीवाली के दीए से जगमग करना। नए मौसम का उत्सव के साथ और उत्सव के साथ विदाई।
इतनी वैज्ञानिकता है, इतना धन्यवाद का भाव है हममें।
ऋतुओं-मौसमों के साथ शायद ही किसी ने ऐसी लय बिठाई हो। जनवरी में जब सूर्य उत्तरायण होते हैं तो मकर संक्रांति, पोंगल, लोहड़ी मनाते हैं हम। यह संकेत है कि ठंड अब विदा होने वाली है। ठंड के बाद बसंत और फिर मस्ती का त्योहार होली भी आ गया। फिर नवरात्रि आती है जो बताती है कि सूर्य का प्रकोप अब बढ़ने वाला है। मानसून की फुहारों के साथ तो त्योहारों की भी झड़ी लग जाती है। गुरु पूर्णिमा, तीज, रक्षा बंधन, नागपंचमी और जन्माष्टमी। और फिर सर्दियों के आगमन के साथ नवरात्रि, दशहरा, दीपावली व छठ पूजा भी आ जाते हैं!
यही उद्देश्य व्रत के पीछे भी है। हमारे पूर्वजों ने बहुत पहले विचारशक्ति के विज्ञान के प्रयोग, संकल्प शक्ति के विज्ञान के प्रयोग को समझ लिया था। व्रत से शरीर व मन के विकार तो खत्म होते ही हैं परंतु इसका मूल उद्देश्य होता संकल्प शक्ति को विकसित करना।
यदि आपकी संकल्प शक्ति मजबूत है तो इसका अर्थ है कि आप दृढ़चरित्र, दृढ़प्रतिज्ञ व्यक्ति हैं। संकल्पवान व्यक्ति ही जीवन में सफल होता है। जिस व्यक्ति में मन, वचन एवं कर्म की दृढ़ता नहीं है, वह जीवन में असाधारण सफलताएं नहीं प्राप्त कर सकता।
इसलिए व्रत-उपवास की परंपरा डाली गई।
यह सब क्यों?
हमारे गुरुओं एवं ऋषि-मुनियों ने बहुत पहले मनुष्यों की एक कमजोरी पहचान ली थी कि आपकी इच्छाएं आपको बैठने नहीं देती। आप कुछ न कुछ करते ही रहेंगे। ऐसे में आपको कुछ पल विश्राम की स्थिति में ले जाना आवश्यक है। इसीलिए दुनिया के सभी धर्मों ने ऐसी व्यवस्थाएं कीं कि मनुष्य को कुछ समय विश्राम मिल सके। बुक ऑफ जेनेसिस में कहा गया है कि लगातार काम करते रहना धर्म के खिलाफ है। यहां तक कि ईश्वर भी रविवार को विश्राम करते हैं।
जीसस क्राइस्ट ने मछुआरों से कहा, आसमान में उड़ रहे पक्षियों को देखो, वे न कोई काम करते हैं, न कोई चिंता। फिर भी परम पिता उनके भोजन की व्यवस्था करता है। मनुष्यों, क्या तुम परम पिता के लिए इन पक्षियों से अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो! यहूदियों में भी सबाथ यानी शनिवार के दिन काम करने की मनाही है।
और हमारा सनातन धर्म तो है ही उत्सवों का धर्म! हमने इतने व्रत- त्योहार बनाए ही हैं इसीलिए कि आप थोड़ा विश्राम करना सीख लें। थोड़ा बैठ सकें, आत्मचिंतन कर सकें। हमारे अध्यात्म के मनीषी जानते थे कि शांत होने पर ही, दिमाग में विचारों का शोर कम होने पर ही आप अपने विचारों को देख पाएंगे। विचारों को देखने के बाद ही साक्षी भाव का उदय होगा। और साक्षी भाव के उदय के बाद ही आप जान पाएंगे कि इस दुनिया में जो कुछ भी हो रहा रहा है वह आप नहीं कर रहे हैं! आपकी हैसियत सिर्फ देखने वाले की है।
फिर क्यों इतनी आपाधापी! कम से कम इन त्योहारों में थोड़ा ठहर जाएं, बैठ जाएं, आत्मचितन करें। यही इसका उद्देश्य है, यही अभीष्ठ है।