सबकी शिकायत है कि उसे कोई समझ ही नहीं पाता। सबकी आकांक्षा व आवश्यकता होती है कि वह दूसरे को ठीक से समझ ले और दूसरे भी उसे ठीक से समझ लें। फिर भी यह आम तौर पर संभव नहीं हो पाता। परिवार में पति-पत्नी, पिता-पुत्र बरसों से साथ रह रहे हैं फिर भी एक दूसरे को नहीं समझ पाते। कारण क्या है?
पहला, जब आप किसी के पास बैठे हैं, बात कर रहे हैं तो आपको पूरे ध्यान से, होशपूर्ण होकर उसे सुनना चाहिए। लेकिन होशपूर्ण होकर सुनना आप सीख ही नहीं पाए। कोई आपसे बात कर रहा है और आप वहां उपस्थित ही नहीं हैं, ध्यान कहीं और है। आप उसके भावों, संकेतों और मंशा को समझने से चूक जाते हैं। कहे गए शब्दों की मनमानी, सुविधानुसार व्याख्या कर लेते हैं।
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दूसरा, मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि इससे भी बड़ी समस्या यह है कि कोई आपसे क्या कहना चाह रहा है, इसे समझने के लिए आप उसे नहीं सुन रहे हैं। आप सुन रहे हैं इसलिए कि जैसे ही वह अपनी बात खत्म करे, आप उसे उत्तर दे सकें। इस बीच आप नाप तौल भी करते हैं और उसके बारे में जल्दी से जल्दी एक राय बनाने का प्रयास करते हैं।
तीसरा महत्त्वपूर्ण विषय है, हमारा अटेंशन स्पन यानी किसी चीज पर ध्यान केंद्रित करने की शक्ति। 2015 का एक वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि मनुष्य का अटेंशन स्पन घटकर 8.25 सेकेंड हो गया जो घरों में एक्वेरियम में पाली जाने वाली मछली गोल्डफिश से भी कम है। वह भी नौ सेकेंड तक किसी चीज पर ध्यान केंद्रित कर सकती है। हम उतना भी नहीं कर सकते। इतने उपद्रव भर लिए हैं हमने दिमाग में।
इस तरह की हो चुकी है आज की मनुष्यता। इसलिए कोई किसी को नहीं समझ पा रहा आजकल। लोग क्रोध, कुंठा, अवसाद में हैं कि दूसरे ने उसे ठीक से समझा नहीं और इसकी वजह से ये अनर्थ हो गया। घर से लेकर बाहर तक एक दूसरे को नहीं समझ पाने के कारण ही कलह है। कहते हैं कि आजकल भागदौड़ में किसके पास समय है किसी को समझने का। लेकिन अध्यात्म और मन, दोनों के वैज्ञानिक कहते हैं कि यह बस आपके दिमाग का खेल है। हमारा दिमाग बस उतनी ही चीजें समझना चाहता है जो जरूरी हों। जैसे ही लगा कि जरूरत भर का समझ लिया, आपने दिमाग खपाना बंद कर दिया। मष्तिष्क अनंत शक्तियों का स्रोत है लेकिन आप इसका उपयोग बहुत कंजूसी से करते हैं।
इसलिए आप देखेंगे तो पाएंगे कि आप दूसरों को और दूसरे आपको बहुत ही कम समझते हैं। कारण यह है कि आपने कभी ध्यान से, होशपूर्ण होकर किसी की बात सुनी ही नहीं। चंद वाक्यों और औपचारिक मुलाकातों से धारणा बना ली कि अमुक सज्जन है, बदमाश है, बेईमान या ईमानदार है। हम दूसरों के बारे में बहुत जल्द फैसला कर लेते हैं। और ये फैसले पूर्वाग्रहों, अनुमानों, पसंद-नापसंद और घिसी पिटी चीजों के आधार पर लिए जाते हैं। तटस्थ भाव से ना आपने कभी स्वयं को देखा और ना दूसरों को। इसलिए आप कुछ हैं और लोग आपको कुछ और समझता है। कोई कुछ है और आप उसे कुछ समझते हैं। यही चक्र चल रहा है और सभी परेशान हैं।
समस्या यह भी है कि किसी के दिमाग में क्या चल रहा है, उसे पढ़ने की कोई तकनीक तो अभी तक विकसित हुई नहीं है। इसलिए आपके शब्दों, तौरतरीकों और आडंबर से ही एक धारणा बना ली जाती है। आज का मनुष्य पूरी तरह दमित है। वह सिर्फ अभिनय कर रहा है। गंभीरता का आवरण ओढ़े, नपा-तुला मतलब की बात बोलने वाले और कृत्रिम मुस्कान ओढ़े भद्र मनुष्य के बारे में धारणा कैसे बनाएं। आप आत्मकेंद्रित हैं, अपने मनोभाव कभी खुलकर व्यक्त किए नहीं, बुद्धि के तल पर ही जीते रहे तो स्वाभाविक है कि आपके बारे में जो चीजें लोग नहीं समझ पा रहे, उस पर कल्पना से राय बनाएंगे। हर आदमी अभेद्य किला बन चुका है। अगर आप चाहते हैं कि लोग आपको ठीक से समझें तो पहले आप खुद को अभिव्यक्त करना तो सीखें। अपने शब्दों, भावनाओं को आवाज दें।
किसी को समझने के लिए आवश्यक है होशपूर्ण रहना। और होशपूर्ण रहने के लिए आवश्यक शर्त है ध्यान। ध्यान ही मन के उपद्रवों को कम कर सकता है। आप थोड़ा होशपूर्ण होकर किसी को समझने के प्रयास कर सकते हैं। और जब आप लोगों को समझने लगेंगे तो जुड़ने भी लगेंगे। और मनुष्यता के जुड़ाव की प्रक्रिया तीन शब्दों से शुरू होती है- सहानुभूति, संवेदना और करुणा। यानी सिम्पैथी, इम्पैथी और कम्पैशन। आम तौर पर हम सिम्पैथी और इम्पैथी दोनों का प्राय: एक ही अर्थ में प्रयोग कर लेते हैं। लेकिन फर्क है। सहानुभूति अर्थात आप समझ सकते हैं कि अमुक व्यक्ति किस पीड़ा से गुजर रहा है। लेकिन आप यहीं रुक गए। इम्पैथी या संवेदना का मतलब हृदय के द्वार थोड़े से खोल दिए हैं आपने। दूसरे के हर्ष और पीड़ा का स्वयं भी अनुभव कर रहे हैं। आज का मनुष्य बहुत समझदार है। वह खोखली बातें, झूठी संवेदनाएं तुरंत समझ जाता है। इसलिए झूठी संवेदना से काम नहीं चलेगा। सचमुच में संवेदना के तार जोड़ेंगे तो दूसरा अपने आप मन की गांठें खोल देगा। फिर वह वह आपको और आप उसे अच्छे से समझने लगेंगे। लेकिन संवेदना मन का ज्वार भाटा है। आज आप किसी की पीड़ा से व्यथित हो गए तो हो सकता है कल उसकी तरफ देखें भी नहीं।
करुणा मनुष्यता का उच्चतम स्तर है। इसमें आप बिना कोई अपेक्षा किए हरसंभव मदद को तत्पर रहते हैं। संवेदना के सोते सूख सकते हैं लेकिन करुणा का सागर हमेशा लबालब रहता है। क्योंकि करुणा सुविचारित होती है, और समाधान के उद्देश्य से उपजती है। करुणा एक स्वीकार का भाव है। यह पूर्वाग्रह से लिए गए निर्णयों से प्रभावित नहीं होती। करुणावान व्यक्ति समूची मानवता का मित्र होता है। बुद्ध करुणावान थे। वे मनुष्यता को समझ का बहुत बड़ा उपहार देकर गए। आप भी इसका उपयोग कर सकते हैं। करुणा जाग गई तो एक दूसरे को नहीं समझ पाने के कारण जो कलह है वह स्वत: ही खत्म हो जाएगी।